परदे की ओट से झांकते सूरज की पहली किरण...खुलने की जिद्द पर मचलती आँखें...मानो सुबह का स्वागत कर रही हो, अंगड़ाई लेते हुए धीरे से छूती ठंडी हवा...कहीं गायब हो गया है स्पर्श इनका, पहले जहाँ ज़िन्दगी कुदरत के साए में बस्ती थी, अब बस्ती है कीमती मकानों में, कुदरत गायब हो रही है, वजह रहने के लिए छत चाहिये पर चादर फैलती गयी और खुद के लिए छत चाहते- चाहते सामानों को भी छत की जरूरत पड़ गयी, फिर क्या चल पड़े अपनी धुन में, आने वाले खतरे से बेखबर...होश आया जब कुदरत सहते-सहते थक गयी...कई हाँथ बढे बचाने के लिए पर उससे कहीं ज्यादा पीछे भी रहे...वजह, करें तो पर कैसे? सवाल उठा और जवाब सामने आया ' सिकाडा ग्रीन' के रूप में...बढे हाथो को और आगे बढ़ाने और कोशिश कर रहे हाथो को सही दिशा दिखाने के लिए...और हाँ जो नहीं कर रहे ये सोच कर कि हमें क्या करना...उन्हें करना ही है ये बताने के लिए, आगे आये हैं हम, कुदरत को बचने उसके महत्व को समझाने...हम कोशिश कर रहे हैं , आप भी कोशिश करिए हमने हाथ बढाया है आप भी बढाइये, कुदरत को बचाइए...
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a very very good thought, i like very much.
ReplyDeleteVery good efforts for very much need for today.
-Mahitosh Khandelwal