Friday, June 18, 2010

बैठा कुछ काम कर रहा था तभी अचानक जाने किस सोच में डूब गया, सोचते-सोचते बहुत दूर निकल आया...“मन के किसी कोने में छिपी उन नजरों से अपने भविष्य को टोह रहा हूं, जो जीवन में कभी आए...ये सभी चाहते हैं। सोच रहा हूं उस वक्त के नजरिए से, जब शरीर जीवन के अंतिम पड़ाव पर पहुंच चुका है लेकिन मन अभी बूढ़ा नहीं हुआ है। एक गीत याद आता है थोड़ा है थोड़े की जरुरत है”…कभी गुनगुनाता था जब चाहत थी अच्छी नौकरी, अच्छे घर और एक अच्छे जीवनसाथी की। मेहनत की और सब अच्छा पा भी लिया...पर सबकुछ अच्छा पा सका। सोचा कि क्या कहीं कोई कमी रह गयी तो लगा नहीं कमी तो नहीं रही, बस थोड़ा और पाने की चाहत में अपने कल में बहुत कुछ कमी छोड़ दी। परवरिश में कमी थी...एश्वर्य की भी ज्यादा चाहत थी, फिर कमी कहां रह गयी जो मन बेचैन है। हम आगे निकल आए पर शायद कुछ पीछे छूट गया है। बड़ी-बड़ी इमारतें तो हैं, सड़कों पर दौड़ती लम्बी-लम्बी गाड़ियां भी हैं...आबादी दिन पर दिन बढ़ रही है लोग भाग रहे हैं, उसी तरह जिस तरह कभी मैं भाग रहा था...मैं उस वक्त तेज था और वक्त आज मुझसे तेज है। शोरगुल बहुत हो रहा है...इसलिए किसी का रोना सुनाई नहीं दे रहा। सबने अपनी ही एक दुनिया बना रखी है...शायद इसलिए बिखर रही दुनिया को भूल गए हैं। मुझे भी किसी का रोना तब सुनाई दिया जब शरीर साथ नहीं दे रहा...मेरा शरीर भी बिखर रही दुनिया की तरह बिखरने की कगार पर है, मन रो रहा है इसलिए किसी और का रोना भी सुनाई दे रहा है, पर फिर सोचता हूं, रोने से क्या होगा? थोड़ा पाने की चाहत में बहुत कुछ गंवाया होता तो आज रोना पड़ता। जानता हूं मुझे तो बिखरना ही है पर ये भी जानता हूं कि किसी और को बिखरने नहीं देना है। जो तब नहीं किया वो आज तो कर सकता हूं, मैं शारीरिक रुप से सक्षम नहीं हूं तो क्या हुआ किसी और को तो तैयार कर सकता हूं। फिर मेरा मन रोएगा और ही कोई उस वक्त का इंतजार करेगा कि...कोई अकेला हो तो मेरी सिसकियां सुने। तब सिर्फ सुनायी देगी पंक्षियों की गूंजती चीं-चीं के बीच धरती मां की गोद में खेलते एक छोटे पौधे की किलकारियां... सोच से अचानक बाहर गया तो लगा क्या इतना लंबा वक्त लगेगा...और क्या तब ही कुछ करेंगे, क्या आज रोने की आवाज कानों में नहीं गूंजती या फिर हम सुनना नहीं चाहते। शरीर लाचार हो और मन रोए इससे पहले क्यों रोने के कारण को ही खत्म कर दें। तभी हर आने वाली सुबह में, पर्दे की हर ओट के साथ खिलखिलाती हुई किलकारियां ही नींद से जगाएंगी।

Friday, June 4, 2010

Many Species. One Planet. One Future की इस थीम के साथ आज एक बार फिर पूरी दुनिया World Environmental Day मनाने में मशगूल हो गयी है। पूरी दुनिया में लोग अपने-अपने तरीके से इस दिवस को मना रहे हैं। अलग-अलग इवेंट्स, फिल्म फेस्टिवल, जागरुकता अभियान के जरिए अपना संदेश लोगों तक पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं। जो पहले से किसी पर्यावरण संरक्षित संस्था से जुड़े हुए हैं...वो तो इस पहल में सबसे आगे हैं ही, पर साथ ही वो लोग भी जिनका किसी संस्था से कोई सरोकार नहीं है...वो भी आज के दिन काल का ग्रास बनती जा रही अपनी पृथ्वी को बचाने का संकल्प ले रहे हैं। कोशिश सराहनीय है...और होनी भी चाहिए इस भागदौड़ भरी जिंदगी में जहां अपनों के लिए घड़ी की सुइयां आगे बढ़ जाती हैं...वहां पूरे साल में एक बार ही सही हम प्रदूषित होते अपने पर्यावरण पर एक सरसरी निगाह फेरने के साथ ही...उसके सुधार में एक कदम आगे तो बढ़ाते हैं। पर हमारा खुद से एक सवाल है, क्या पूरे साल में सिर्फ एक बार अपनी प्रकृति की ओर ध्यान देना काफी है। क्या हर साल कुछ सही करने के बजाय हम बस कोशिश ही करते रहेंगे? एक कोशिश पिछले साल की थी और एक कोशिश फिर इस साल कर रहे हैं...और हर कोशिश के साथ अपनी ही पीठ थपथपाते हुए खुश हो जाते हैं कि देखो हमें, हम कितने जिम्मेदार नागरिक हैं... सिर्फ अपने परिवार के लिए बल्कि अपनी धरती मां के लिए भी...और बस इसी जिम्मेदारी को निभाने का चोला ओढ़ पूरे साल अगली 5 जून आने का इंतजार करने में निकाल देते हैं। सरकारी या गैर सरकारी संस्थाएं जो पर्यावरण की सुरक्षा के लिए काम करती रही हैं...हम क्यों सारा भार केवल उनके कंधों पर डाल देते हैं और एक दिन हजारों लोगों की भीड़ में इकट्ठा होकर नाच गाकर ये भूल जाते हैं...कि आखिर हम यहां आए किसलिए थे...किसी फिल्म स्टार का डांस देखने या उस परफॉर्मेंस के पीछे दिए गए संदेश को अपनाने। बात आयी-गयी हो जाती है...और हम अपने घरों में चादर डालकर सो जाते हैं। पूरे साल में एक दिन पूरे जोश के साथ खुद को जिम्मेदार नागरिक साबित करते हुए एक पेड़ तो लगाएंगे...लेकिन दूसरे ही दिन पानी डालना भूल जाएंगे क्यों? गर्मी बहुत है...पर हम भूल जाते हैं कि जिस पेड़ को पानी देने में हमें आज धूप जला रही है॥कल वही हमें चिलचिलाती धूप से छाया देगा। कहने का मतलब सराहना करके नीचे गिराने से नहीं है...हमेशा के लिए सराहनीय बनने से है। किसी विशेष तारीख या दिन का इंतजार होने से नहीं है...हर दिन विशेष होने से है। जरुरत किसी ऐसे दिन की नहीं है जब हम अपनी जिम्मेदारी समझें... जरुरत है हर दिन को जिम्मेदारी से सराबोर करने की। जब हम वातावरण के लिए जागरुक हो काम करना शुरु कर देंगे तो शायद हमें किसी एक खास दिन का मोहताज नहीं होना पड़ेगा। दिन खास जरुर होगा लेकिन एक और कोशिश के लिए नहीं बल्कि एक और नया आयाम जोड़ने के लिए। तब शायद हम हर साल Many Species. Green Planet. Secure Future की एक नयी थीम के साथ ही मनाएंगे...