Wednesday, November 17, 2010

भारत- 2030 में मचेगी उथल-पुथल, कहीं सूखा तो कहीं बाढ़


देश और दुनिया में जलवायु परिवर्तन का खतरा तेजी से बढ़ रहा है। केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन के असर के चलते अगले 20 वर्षों तक देश के तापमान में 1.7 से 2.2 डिग्री सेल्सियस तक की बढ़ोतरी हो सकती है।

जलवायु परिवर्तन जैसे संवेदनशील मसले पर भारत की ओर से जारी पहली रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि वर्ष 2030 तक देश के हिमालयी क्षेत्र में अत्यधिक सूखा पड़ेगा, जबकि देश के अन्य हिस्‍सों में खूब बाढ़ आएगी। यह सब ग्रीन गैसों के उत्‍सर्जन के चलते होगा। वर्ष 1970 की तुलना में तापमान बढ़ने के साथ समुद्र का स्‍तर भी बढ़ेगा।

भारत के तटवर्ती क्षेत्रों में समुद्री जल स्तर में वर्ष 2030 तक 1.33 मिलीमीटर प्रतिवर्ष की दर से इजाफा होगा। वर्ष 2030 तक चक्रवातों की संख्या में कमी आयेगी लेकिन जो भी चक्रवात आएंगे उनकी तीव्रता बढ़ जाएगी।

केंद्रीय वन एवं पर्यावरण राज्य मंत्री जयराम रमेश, विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी मंत्री कपिल सिब्बल तथा जाने-माने अर्थशास्त्री एम. एस. स्वामीनाथन ने भारत पर जलवायु परिवर्तन के असर से जुड़ी इस रिपोर्ट को मंगलवार को जारी किया।

सौ से अधिक संस्थानों और 220 वैज्ञानिकों के इंडियन नेटवर्क फॉर क्‍लाइमेट चेंज असेसमेंट (आईएनसीसीए) की इस रिपोर्ट के मुताबिक जलवायु परिवर्तन के चलते बारिश का भी मिजाज गड़बड़ाएगा। हिमालय क्षेत्र यानी उत्तराखंड, जम्मू- कश्मीर और हिमाचल के इलाके में भारी बारिश का औसत बढ़ेगा। वहीं भरपूर बारिश से हरा-भरा पूर्वोत्तर क्षेत्र अल्प वर्षा से जूझने को मजबूर होगा।

आईएनसीसीए के आकलन के मुताबिक मौसम के मिजाज में हो रहे बदलावों का खेती, जल संसाधन, जंगल और इंसानी सेहत पर भी खासा असर पड़ेगा। रिपोर्ट कहती है कि हिमालय क्षेत्र में सेब की फसल पर प्रकृति की मारे पड़ेगी। वैज्ञानिकों का मानना है कि चावल की सिंचित खेती के उत्पादन में कुछ बढ़ोतरी जरूर होगी, लेकिन मक्का समेत कई फसलों पर इसका गलत असर भी पड़ेगा। इसके अलावा दूध का उत्पादन भी घटेगा।

हालांकि पर्यावरण मंत्री ने कहा कि यह एक आकलन रिपोर्ट है और इसे लेकर हाय तौबा मचाने की जरूरत नहीं है। उन्‍होंने कहा कि यह एक चेतावनी है जिस पर काम करते हुए हम भविष्‍य की नीतियां तैयार कर सकते हैं।
To Kya ab bhi hum intjaar hi karenge ki Government Hi Kuch kare.Hum sabh ek Jimmadar Nagrik ha.Apne adihkaro ke liye to hum ladte ha apne kartvyo ke liye kyo nahi????????

Monday, October 4, 2010

खुद में बदलाव ज़रुरी



जिस सोच को लेकर चला था...आज कामयाब होती दिखायी दे रही है। अस्तित्व को पहचान दिलाने की ख्वाहिश लिए ताउम्र ये प्रयास जारी रहेंगे। उम्मीद है एक अदद पहचान मिलने के बाद आस-पास की आबोहवा में सुकून महसूस होगा। चलें तो हैं माहौल में उस सुकून को पैदा करने लेकिन महसूस हुआ माहौल बदलने के लिए सबसे पहले अपने अंदर की आबोहवा में सुकून होना चाहिए। हवा में घुली मस्ती को पहले खुद में उतारना था तभी तो हवा की चाल से रुबरु हो सकूंगा। शुरुआत की एक नए मूड से...टाइम टेबल बनाया और सोचा कि बस अब लापरवाही नहीं। दरअसल हुआ यूं...रोज की ही तरह सुबह जल्दी उठना, चाय की चुस्की के साथ अखबार में छपी खबरों पर सरसरी निगाह फेरना, आज क्या करना है और कल क्या बाकी रह गया था...सोचा, फिर बैठ गया काम करने। सबकुछ तो पहले जैसा था, कुछ भी तो नहीं बदला था फिर अचानक तबीयत में गड़बड़ी का एहसास क्यों हो रहा था। आवाज आयी,"दिनभर काम करोगे तो क्या होगा, कुछ उल्टा सीधा खा लिया होगा...चलो अब आराम करो।"

शरीर साथ नहीं दे रहा था तो दिमाग भी कहां सुनने वाला था। लेट गया थोड़ी देर आराम करने के लिए...लेटा जरुर थोड़ी देर के लिए था लेकिन निद्रा रानी का क्या भरोसा, उन्हें तो दिमाग पर कब्जा करके आंखों में बस जाना अच्छा लगता है। ये काम और आसान हो जाता है जब शरीर भी साथ ना दे। खैर उठा, चौंका! और फिर बैठ गया काम करने...डरते-डरते घड़ी पर नजर डाली तो पता लगा लगभग 3 घंटे बर्बाद हो गए। अब कर भी क्या सकते थे? जो वक्त बचा था उसी में सब निपटाना था, बाकी का कल के भरोसे था। इस तरह से आज का दिन तो गया। परेशानी और खराब तबीयत का साथ पाकर जैसे-तैसे जितना काम कर सकता था किया, दवा खाकर लेटा ही था कि लगा कितने अनमोल पल बर्बाद कर दिए। अपने प्रयास की राह में कुछ नया कर सकता था लेकिन इस शरीर का क्या, कब तबीयत बिगड़ जाए कुछ कहा नहीं जा सकता।

वैसे कहते हैं हर मर्ज़ की दवा होती है और अगर मर्ज़ की वजह पता हो तो उसे होने से रोका भी जा सकता है। इसलिए सोच की राह में उल्टे कदम चल दिया। सुबह उठना, चाय की चुस्की, अखबार पर नजर और हां अपने प्रयास पर गर्व...बड़ा अच्छा महसूस हो रहा था। फिर कही गयी बात पर ध्यान गया, क्या मैं वाकई ज्यादा काम करता हूं और इसी चक्कर में उल्टा-सीधा खा लेता हूं। हां, सच ही तो है कई बार तो भगवान ने पेट दिया है और उसे खाने की जरुरत है भूल ही जाता हूं। सुबह-सुबह वातावरण में घुली हवा सबसे ज्यादा फायदेमंद होती है। कितनी बार सुबह उठकर टहलने की सोची पर काम करने के चक्कर में रह गया।

दिन-रात मेहनत कर रहा हूं तो किसके लिए अपने प्राकृतिक आशियाने के लिए ही ना...तो फिर इसके प्रति कैसे लापरवाह हो सकता हूं। प्रकृति खुद तो कुछ करेगी नहीं करना तो हमें है...तो करना कैसे है खुद को स्वस्थ रखकर या फिर काम में खोकर बीमार पड़कर वक्त बर्बाद करना है। पहले वाला ऑप्शन ही ठीक था...इसलिए सोचा अब ऐसा नहीं होगा पहले खुद को स्वस्थ रखूंगा तभी तो वातावरण को स्वस्थ रख पाऊंगा। गांधी जी ने कहा है कि "किसी को बदलने से पहले खुद में बदलाव लाओ।"

Saturday, August 28, 2010

"जागरुक बनें, भविष्य सुरक्षित बनाएं"

एक टीवी शो देखा, देश भर से कई प्रतिभावान कलाकारों ने उसमें हिस्सा लिया था. सभी कलाकार बहुत अच्छे थे, सबमें अपनी तरह ही बेहतरीन प्रतिभा थी. लेकिन देखते ही देखते कुछ कलाकारों के एक ग्रुप ने मन पर अलग ही छाप छोड़ दी. उन्हें देखकर लगा कि ये हैं आज के युवा जो ना सिर्फ अपने बारे में सोचते हैं बल्कि अपने आस-पास के वातावरण के प्रति भी जागरुक हैं. सभी ने मिलकर एक ग्रुप डांस पेश किया था, थीम थी 'सेव वॉटर'...देखकर काफी अच्छा लगा.
तभी चैनल चेन्ज करते ही सच्चाई से सामना हो गया. धरती खत्म होने के कगार पर थी. सब कुछ खत्म हो रहा था. पहाड़, नदियां, झरने, जंगल सब कुछ खत्म हो रहा था. वजह 'ग्लोबल वॉर्मिंग'...हम धीरे-धीरे विनाश की ओर बढ़ रहे हैं. हम में से कोई भी ऐसा नहीं है जो इस बात से अनजान हो, लेकिन हम इसे रोकने के लिए कुछ करना तो दूर जो लोग इसे रोकने का प्रयास कर रहे हैं उनका साथ भी नहीं दे रहे. जीबीओ3 ( थर्ड ग्लोबल बायोजेनेटिक आउटलुक) के सर्वेक्षण से तो ये बात पूरी तरह साफ हो जाती है, कि अब वो दिन दूर नहीं जब इस इंतजार में होंगे कि काल कब कहां, किसके दरवाजे पर दस्तक दे दे.
2002 में बैठक में ग्लोबल वॉर्मिंग को रोकने के लिए बुलाई गई बैठक को काम सौंपा गया था, उसके लिए 2010 की समय सीमा तय की गई थी. 2010 अपने आखिरी पड़ाव पर है और इस तरफ कोई भी काम नहीं हो पाया है. यहां तक कि ग्लोबल वॉर्मिंग को रोकने के लिए तय किए गए 21 लक्ष्यों में से एक भी लक्ष्य को पूरा नहीं किया जा सका है. ग्लेशियरस् का पिघलना, मूंगे की चट्टानों का विलुप्त होना, जंगलों का राख होना...आने वाली तबाही का मंजर बयां करते हैं.
अब तक सामान्य दैनिक जन-जीवन से दूर इन त्रासदियों का असर दैनिक जीवन पर भी पड़ने लगा है. नाराज कुदरत ने अपना विकराल रुप दिखाना शुरु कर दिया है. कहीं भूख-प्यास, किसी अचानक आयी प्राकृतिक आपदा या फिर नयी पैदा हुई बीमारी से लोग मर रहे हैं. जीवन का अस्तित्व खत्म हो रहा है, लेकिन इन सब के पीछे कोई और नहीं बल्कि हम खुद ज़िम्मेदार हैं. धरती के अनमोल रत्न कुदरत का हमने जब-तब अपने स्वार्थ के लिए जैसे चाहा वैसे उपयोग किया, लेकिन उसे संजोना भूल गए. हम भूल गए कि हम अगर कुदरत से कुछ ले रहे हैं तो उसके अमूल्य रत्नों को खत्म होने से बचाना भी है, क्योंकि अगर हम धीरे-धीरे प्रकृति के खजाने में थोड़ा-थोड़ा डालने के बजाय अगर कुछ-कुछ निकालते रहे तो एक दिन ये खजाना खाली हो जाएगा.
आज ये खजाना खाली हो गया है. प्रकृति अपने ऊपर होते आ रहे जुल्मों को सहते-सहते थक गयी है. लेकिन अभी भी देर नहीं हुई है. अगर हम चाहें तो एक साथ मिलकर अपने प्रयासों से धरती को काल का ग्रास बनने से बचा सकते हैं. बस जरुरत है जागरुक होने की और दूसरों को जागरुक करने की. हम अपने इस कॉलम के जरिए आप सब तक यहीं संदेश पहुंचाना चाहते हैं. पर्यावरण कानून का पालन करें और वातावरण स्वस्थ बनाएं ताकि हम सभी को एक सुरक्षित भविष्य मिल सके.
"जागरुक बनें, भविष्य सुरक्षित बनाएं"

Friday, June 18, 2010

बैठा कुछ काम कर रहा था तभी अचानक जाने किस सोच में डूब गया, सोचते-सोचते बहुत दूर निकल आया...“मन के किसी कोने में छिपी उन नजरों से अपने भविष्य को टोह रहा हूं, जो जीवन में कभी आए...ये सभी चाहते हैं। सोच रहा हूं उस वक्त के नजरिए से, जब शरीर जीवन के अंतिम पड़ाव पर पहुंच चुका है लेकिन मन अभी बूढ़ा नहीं हुआ है। एक गीत याद आता है थोड़ा है थोड़े की जरुरत है”…कभी गुनगुनाता था जब चाहत थी अच्छी नौकरी, अच्छे घर और एक अच्छे जीवनसाथी की। मेहनत की और सब अच्छा पा भी लिया...पर सबकुछ अच्छा पा सका। सोचा कि क्या कहीं कोई कमी रह गयी तो लगा नहीं कमी तो नहीं रही, बस थोड़ा और पाने की चाहत में अपने कल में बहुत कुछ कमी छोड़ दी। परवरिश में कमी थी...एश्वर्य की भी ज्यादा चाहत थी, फिर कमी कहां रह गयी जो मन बेचैन है। हम आगे निकल आए पर शायद कुछ पीछे छूट गया है। बड़ी-बड़ी इमारतें तो हैं, सड़कों पर दौड़ती लम्बी-लम्बी गाड़ियां भी हैं...आबादी दिन पर दिन बढ़ रही है लोग भाग रहे हैं, उसी तरह जिस तरह कभी मैं भाग रहा था...मैं उस वक्त तेज था और वक्त आज मुझसे तेज है। शोरगुल बहुत हो रहा है...इसलिए किसी का रोना सुनाई नहीं दे रहा। सबने अपनी ही एक दुनिया बना रखी है...शायद इसलिए बिखर रही दुनिया को भूल गए हैं। मुझे भी किसी का रोना तब सुनाई दिया जब शरीर साथ नहीं दे रहा...मेरा शरीर भी बिखर रही दुनिया की तरह बिखरने की कगार पर है, मन रो रहा है इसलिए किसी और का रोना भी सुनाई दे रहा है, पर फिर सोचता हूं, रोने से क्या होगा? थोड़ा पाने की चाहत में बहुत कुछ गंवाया होता तो आज रोना पड़ता। जानता हूं मुझे तो बिखरना ही है पर ये भी जानता हूं कि किसी और को बिखरने नहीं देना है। जो तब नहीं किया वो आज तो कर सकता हूं, मैं शारीरिक रुप से सक्षम नहीं हूं तो क्या हुआ किसी और को तो तैयार कर सकता हूं। फिर मेरा मन रोएगा और ही कोई उस वक्त का इंतजार करेगा कि...कोई अकेला हो तो मेरी सिसकियां सुने। तब सिर्फ सुनायी देगी पंक्षियों की गूंजती चीं-चीं के बीच धरती मां की गोद में खेलते एक छोटे पौधे की किलकारियां... सोच से अचानक बाहर गया तो लगा क्या इतना लंबा वक्त लगेगा...और क्या तब ही कुछ करेंगे, क्या आज रोने की आवाज कानों में नहीं गूंजती या फिर हम सुनना नहीं चाहते। शरीर लाचार हो और मन रोए इससे पहले क्यों रोने के कारण को ही खत्म कर दें। तभी हर आने वाली सुबह में, पर्दे की हर ओट के साथ खिलखिलाती हुई किलकारियां ही नींद से जगाएंगी।

Friday, June 4, 2010

Many Species. One Planet. One Future की इस थीम के साथ आज एक बार फिर पूरी दुनिया World Environmental Day मनाने में मशगूल हो गयी है। पूरी दुनिया में लोग अपने-अपने तरीके से इस दिवस को मना रहे हैं। अलग-अलग इवेंट्स, फिल्म फेस्टिवल, जागरुकता अभियान के जरिए अपना संदेश लोगों तक पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं। जो पहले से किसी पर्यावरण संरक्षित संस्था से जुड़े हुए हैं...वो तो इस पहल में सबसे आगे हैं ही, पर साथ ही वो लोग भी जिनका किसी संस्था से कोई सरोकार नहीं है...वो भी आज के दिन काल का ग्रास बनती जा रही अपनी पृथ्वी को बचाने का संकल्प ले रहे हैं। कोशिश सराहनीय है...और होनी भी चाहिए इस भागदौड़ भरी जिंदगी में जहां अपनों के लिए घड़ी की सुइयां आगे बढ़ जाती हैं...वहां पूरे साल में एक बार ही सही हम प्रदूषित होते अपने पर्यावरण पर एक सरसरी निगाह फेरने के साथ ही...उसके सुधार में एक कदम आगे तो बढ़ाते हैं। पर हमारा खुद से एक सवाल है, क्या पूरे साल में सिर्फ एक बार अपनी प्रकृति की ओर ध्यान देना काफी है। क्या हर साल कुछ सही करने के बजाय हम बस कोशिश ही करते रहेंगे? एक कोशिश पिछले साल की थी और एक कोशिश फिर इस साल कर रहे हैं...और हर कोशिश के साथ अपनी ही पीठ थपथपाते हुए खुश हो जाते हैं कि देखो हमें, हम कितने जिम्मेदार नागरिक हैं... सिर्फ अपने परिवार के लिए बल्कि अपनी धरती मां के लिए भी...और बस इसी जिम्मेदारी को निभाने का चोला ओढ़ पूरे साल अगली 5 जून आने का इंतजार करने में निकाल देते हैं। सरकारी या गैर सरकारी संस्थाएं जो पर्यावरण की सुरक्षा के लिए काम करती रही हैं...हम क्यों सारा भार केवल उनके कंधों पर डाल देते हैं और एक दिन हजारों लोगों की भीड़ में इकट्ठा होकर नाच गाकर ये भूल जाते हैं...कि आखिर हम यहां आए किसलिए थे...किसी फिल्म स्टार का डांस देखने या उस परफॉर्मेंस के पीछे दिए गए संदेश को अपनाने। बात आयी-गयी हो जाती है...और हम अपने घरों में चादर डालकर सो जाते हैं। पूरे साल में एक दिन पूरे जोश के साथ खुद को जिम्मेदार नागरिक साबित करते हुए एक पेड़ तो लगाएंगे...लेकिन दूसरे ही दिन पानी डालना भूल जाएंगे क्यों? गर्मी बहुत है...पर हम भूल जाते हैं कि जिस पेड़ को पानी देने में हमें आज धूप जला रही है॥कल वही हमें चिलचिलाती धूप से छाया देगा। कहने का मतलब सराहना करके नीचे गिराने से नहीं है...हमेशा के लिए सराहनीय बनने से है। किसी विशेष तारीख या दिन का इंतजार होने से नहीं है...हर दिन विशेष होने से है। जरुरत किसी ऐसे दिन की नहीं है जब हम अपनी जिम्मेदारी समझें... जरुरत है हर दिन को जिम्मेदारी से सराबोर करने की। जब हम वातावरण के लिए जागरुक हो काम करना शुरु कर देंगे तो शायद हमें किसी एक खास दिन का मोहताज नहीं होना पड़ेगा। दिन खास जरुर होगा लेकिन एक और कोशिश के लिए नहीं बल्कि एक और नया आयाम जोड़ने के लिए। तब शायद हम हर साल Many Species. Green Planet. Secure Future की एक नयी थीम के साथ ही मनाएंगे...

Sunday, May 16, 2010

"अंदाज़ बदलना है"

आज का दिन भी यूंही गुज़र जाने वाला था। मैं सोच रहा था कि अपने इस सफर में आज ऐसा क्या करुं जिससे कि हम अपने लक्ष्य में एक और कड़ी जोड़ सकें। ट्रेन की धीमी रफ़्तार और सूरज की गर्मी दोनों ही मेरी बेचैनी बढ़ा रही थीं। थोड़े समय के लिए मैं सुस्त भी हो गया...फिर सोचा कि क्या ये लड़ाई ऐसे ही चलेगी? ट्रेन जिसमें हम सफ़र करते हैं, जो लोगों को उनके गन्तव्य स्थानों तक पहुंचाने का सिर्फ माध्यम ही नहीं है...उससे ऊपर की सोच को समझने में शायद वक्त लगा पर देर से ही सही मुझे लगा कि नहीं इस सफ़र के दौरान करने के लिए बहुत कुछ है। शायद जिसे मैं गवां रहा हूं। ये सोच कर मैंने एक संकल्प लिया, वैसे तो लोग ट्रेन में बहुत सारी बातें करते हैं...शायद वो खुद समझने की कोशिश नहीं करते कि जिस तंत्र के बारे में हम सब बात करते हैं, हम भी उसी का एक हिस्सा हैं।अपने सीट पर बैठे यात्रियों की बात सुनकर मैंने उनसे बातचीत करना शुरु की तो लगा लोग कितने नाराज़ हैं। कुछ इस तंत्र से, कुछ घर से और कुछ गंदगी से...जबकि ट्रेनों में गंदगी फैलाने वाले हम ही हैं। एक परिवार में जितने लोग उतनी पानी की बोतलें मतलब उतना कचरा...इस 1000 किलोमीटर के सफर में शायद एक परिवार जिसमें कुल 6 लोग थे...ने कम से कम 12-15 प्लास्टिक की बोतलों का उपयोग किया। हम प्यास को तो कम नहीं कर सकते हैं...पर क्या हम ऐसा नहीं कर सकते कि जब हम साथ में जाएं...परिवार के सभी सदस्यों को अलग- अलग बोतलें उपयोग करने के लिए देने की जगह हम एक बड़ा जल शीतक साथ रखें। पानी की मात्रा भी ज्यादा आएगी और पानी ठंडा भी रहेगा साथ ही प्लास्टिक की बोतलों से फैलने वाले कचरे से भी बचा जा सकेगा। मैं बस आपसे ये कहना चाहता हूं कि हमें केवल अपने सोचने का अंदाज बदलना है। हमारी हर छोटी-छोटी कोशिशों से ही तो वातावरण शुद्ध होगा। ट्रेनों में खाने-पीने की सामग्री खाने के बाद हम उसके रैपर ट्रेन में ही छोड़ देते हैं। सोचिए जब आप अपने सफ़र पे निकलने के लिए ट्रेन में जाते हैं...अपनी सीट नं। पर पहुंचने के बाद जब आपको वहां पर कचरा दिखता है तो सबसे पहले मुंह से शब्द निकलते हैं,"क्या यहां कोई जानवर बैठा था"...फिर वहीं सीट हम साफ करते हैं और पहले बैठने वाले यात्री को कोसते हैं या सफाई कर्मचारी को दोष देते हैं। मेरा एक सवाल है, क्या हम अपने वाहनों में भी बैठ कर ऐसा ही करते हैं? क्या हम अपनी कार में बैठ कर सारा कूड़ा कार के अंदर ही फेंकते रहते हैं? रेलवे ने भी हम सबकी जरुरतों का ध्यान रखकर ट्रेनों में कूड़ेदान लगवाए हैं...पर कितने लोग उसका उपयोग करते हैं, कूड़ेदान केवल पीकदान नहीं है...सीटों और फर्श को गंदा करने से बेहतर है हम उसका उपयोग करें या घर से कागज का लिफाफा लेकर निकलें, उसमें अपना फैलाया सारा कूड़ा इकट्ठा करके कूड़ेदान में डालें। ट्रेन कई स्टेशनों पर भी रुकती है वहां पर भी कूड़ेदान उपलब्ध है। ट्रेन हमारी राष्ट्रीय संपत्ति है उसको स्वच्छ रखना हमारा भी कर्तव्य है। आज हम कहते हैं कि अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, सिंगापुर कितने साफ देशों में से हैं। दोस्तों उन्हें साफ बनाने वाले भी वहां के नागरिक ही हैं। सवाल है,"क्या हम दूसरों की तारीफ़ ही करेंगे या दूसरों को भी हमारी तारीफ़ करने का मौका देंगे?"

"अंदाज बदलना है"