Monday, October 4, 2010

खुद में बदलाव ज़रुरी



जिस सोच को लेकर चला था...आज कामयाब होती दिखायी दे रही है। अस्तित्व को पहचान दिलाने की ख्वाहिश लिए ताउम्र ये प्रयास जारी रहेंगे। उम्मीद है एक अदद पहचान मिलने के बाद आस-पास की आबोहवा में सुकून महसूस होगा। चलें तो हैं माहौल में उस सुकून को पैदा करने लेकिन महसूस हुआ माहौल बदलने के लिए सबसे पहले अपने अंदर की आबोहवा में सुकून होना चाहिए। हवा में घुली मस्ती को पहले खुद में उतारना था तभी तो हवा की चाल से रुबरु हो सकूंगा। शुरुआत की एक नए मूड से...टाइम टेबल बनाया और सोचा कि बस अब लापरवाही नहीं। दरअसल हुआ यूं...रोज की ही तरह सुबह जल्दी उठना, चाय की चुस्की के साथ अखबार में छपी खबरों पर सरसरी निगाह फेरना, आज क्या करना है और कल क्या बाकी रह गया था...सोचा, फिर बैठ गया काम करने। सबकुछ तो पहले जैसा था, कुछ भी तो नहीं बदला था फिर अचानक तबीयत में गड़बड़ी का एहसास क्यों हो रहा था। आवाज आयी,"दिनभर काम करोगे तो क्या होगा, कुछ उल्टा सीधा खा लिया होगा...चलो अब आराम करो।"

शरीर साथ नहीं दे रहा था तो दिमाग भी कहां सुनने वाला था। लेट गया थोड़ी देर आराम करने के लिए...लेटा जरुर थोड़ी देर के लिए था लेकिन निद्रा रानी का क्या भरोसा, उन्हें तो दिमाग पर कब्जा करके आंखों में बस जाना अच्छा लगता है। ये काम और आसान हो जाता है जब शरीर भी साथ ना दे। खैर उठा, चौंका! और फिर बैठ गया काम करने...डरते-डरते घड़ी पर नजर डाली तो पता लगा लगभग 3 घंटे बर्बाद हो गए। अब कर भी क्या सकते थे? जो वक्त बचा था उसी में सब निपटाना था, बाकी का कल के भरोसे था। इस तरह से आज का दिन तो गया। परेशानी और खराब तबीयत का साथ पाकर जैसे-तैसे जितना काम कर सकता था किया, दवा खाकर लेटा ही था कि लगा कितने अनमोल पल बर्बाद कर दिए। अपने प्रयास की राह में कुछ नया कर सकता था लेकिन इस शरीर का क्या, कब तबीयत बिगड़ जाए कुछ कहा नहीं जा सकता।

वैसे कहते हैं हर मर्ज़ की दवा होती है और अगर मर्ज़ की वजह पता हो तो उसे होने से रोका भी जा सकता है। इसलिए सोच की राह में उल्टे कदम चल दिया। सुबह उठना, चाय की चुस्की, अखबार पर नजर और हां अपने प्रयास पर गर्व...बड़ा अच्छा महसूस हो रहा था। फिर कही गयी बात पर ध्यान गया, क्या मैं वाकई ज्यादा काम करता हूं और इसी चक्कर में उल्टा-सीधा खा लेता हूं। हां, सच ही तो है कई बार तो भगवान ने पेट दिया है और उसे खाने की जरुरत है भूल ही जाता हूं। सुबह-सुबह वातावरण में घुली हवा सबसे ज्यादा फायदेमंद होती है। कितनी बार सुबह उठकर टहलने की सोची पर काम करने के चक्कर में रह गया।

दिन-रात मेहनत कर रहा हूं तो किसके लिए अपने प्राकृतिक आशियाने के लिए ही ना...तो फिर इसके प्रति कैसे लापरवाह हो सकता हूं। प्रकृति खुद तो कुछ करेगी नहीं करना तो हमें है...तो करना कैसे है खुद को स्वस्थ रखकर या फिर काम में खोकर बीमार पड़कर वक्त बर्बाद करना है। पहले वाला ऑप्शन ही ठीक था...इसलिए सोचा अब ऐसा नहीं होगा पहले खुद को स्वस्थ रखूंगा तभी तो वातावरण को स्वस्थ रख पाऊंगा। गांधी जी ने कहा है कि "किसी को बदलने से पहले खुद में बदलाव लाओ।"

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